दायरा

देख रहा था मैं, एकटक, टंकी मे बंद मछलियों को,
रंग-बिरंगी, सुन्दर, पर शायद निरर्थक भ्रमण करती,
जाने किस धुन, किस लय मे तरंगित है,
काश उन्हें एहसास होता अपने सीमित दायरे की.

शायद अभी तक है दबी, कहीं अन्तः मे,
उसके अरमान वापस समंदर मे जाने की,
आज़ादी के लिये कितना भी टकराए शीशे से,
पर उसके नसीब मे शायद वो वक़्त नहीं.

शायद खुश है वो इस बात से की,
दरिया मे होते तो टिकते कब तक,
उन पर इंसान ने किया है उपकार,
उन्हें जीवित छोड़ के अब तक.

फिल्मों की तरह हर कहानी का,
एक निश्चित अंत नहीं होता,
जीवन अगर इतनी सरल होती,
तो कभी कोई संघर्ष नहीं होता.

नहीं तय कब ख़त्म होगा, ये सिलसिला गुलामी का,
अपने से बलवान की कमजोर पर जुल्म और मनमानी,
शायद कुछ परेशानियों का हल सिर्फ मृत्यु ही है बस,
चाहे उसे शहादत कह लो, आत्महत्या या क़ुरबानी.

-- कृष्ण पाण्डेय

Comments

Popular posts from this blog

"gnome-screenshot" (No such file or directory)"

कुछ और

यादें