Posts

Showing posts from May, 2012

दायरा

देख रहा था मैं, एकटक, टंकी मे बंद मछलियों को, रंग-बिरंगी, सुन्दर, पर शायद निरर्थक भ्रमण करती, जाने किस धुन, किस लय मे तरंगित है, काश उन्हें एहसास होता अपने सीमित दायरे की. शायद अभी तक है दबी, कहीं अन्तः मे, उसके अरमान वापस समंदर मे जाने की, आज़ादी के लिये कितना भी टकराए शीशे से, पर उसके नसीब मे शायद वो वक़्त नहीं. शायद खुश है वो इस बात से की, दरिया मे होते तो टिकते कब तक, उन पर इंसान ने किया है उपकार, उन्हें जीवित छोड़ के अब तक. फिल्मों की तरह हर कहानी का, एक निश्चित अंत नहीं होता, जीवन अगर इतनी सरल होती, तो कभी कोई संघर्ष नहीं होता. नहीं तय कब ख़त्म होगा, ये सिलसिला गुलामी का, अपने से बलवान की कमजोर पर जुल्म और मनमानी, शायद कुछ परेशानियों का हल सिर्फ मृत्यु ही है बस, चाहे उसे शहादत कह लो, आत्महत्या या क़ुरबानी. -- कृष्ण पाण्डेय

आरज़ू

आज फिर एक दिन गुजर गया, बस यूँ ही ख्यालों में, कुछ करने की चाहत तो थी, पर वजह कहीं गुम था. वजह जानने की कशमकश से बेकरार हुआ जब, हमने पाया दिल के हाथो दिमाग मजबूर था... आरज़ू थी दिल में हमारे भी ऊँची उड़ान की, मगर सारी ख्वाहिशें गुम थी और थे अपने साये, शायद इंतजार है फिर से किसी हमसफ़र का, जिसके साथ मंजिल का मजा राह में ही आये... सुना है उम्मीद पे दुनिया पे कायम है, हम भी जिये जा रहे है यूँ ही, बस तलाश है फिर उस नजर की, जिसमे मेरा चेहरा नजर आये... -- कृष्णा पाण्डेय

यादें

क्या है ये यादें ? एक सफ़र - ख्यालों मे ढूँढना किसी को, जो अब करीब नहीं, या एक एहसास जो यकीन दिलाये, तुम आज भी दिल के करीब हो. है ये तुम्हारे साथ बिताये पल महसूस करने का एक ज़रिया , या दो पल का वहम जिससे दिल को सुकून मिलता हो. है  ये  गुजर  चुके  वक़्त  में  कभी  साथ  होने  की  ख़ुशी , या  फिर  भविष्य मे कभी साथ ना हो पाने का गम? तनहाई  में इंसान के साथी, या महफ़िल में गुफ्तगू के सामान, या ये है पेट भरने के बाद करने वाली, इंसानो की कोई शगल. या ये है पाप का प्रायश्चित, क्यूँ की ये अच्छा वक़्त गुजरने के बाद ही आती है. है ये कोई इस दुनिया से परे एक दूसरा जहान, जहाँ हम ज़माने की मर्ज़ी के बिना मिलते है. या ये है कोई एहसास, जो हमें एक दुसरे के दिल में जिंदा रखती है, सुखद हो तो मुस्कान वरना आँसू छोड़ जाती है. या ये इंसान के कभी हार न मानने के जिद का परिणाम है. ये आती क्यूँ  है? ताकि हम इस बात का फैसला कर सके की कौन सही था, कौन गलत, जब की इस बात से क्या फर्क पड़ता है, क्यूँ की हम जुदा है अब. कभी लगता है ये ऐसी चीज़ है जिसका कोई वजूद नहीं, फिर

ख़ामोशी

ख़ामोशी -- जैसे कोई सुना हुआ एक शब्द. पर इसे सुनना जैसे, शायद सब के बस की बात नहीं, लब सिले हुए होते है, मगर दिल में थमा होता है एक तूफ़ान, जो इंतज़ार करता है किसी अपने का, जिसे सुना सके अपने दिल का हाल. मन में चलते रहते है कई सवाल, जिसका जवाब पता होके भी कोई फर्क नहीं, स्मृति लुप्त है कही अतीत की परछाईओं में कोई नया लम्हा ढूंढ़ पाने को. आस-पास बैठे लोगों से भी दूर-दूर तक कोई रिश्ता ना लगता हो, और नजर से दूर किसी को याद करने से फुर्सत ना हो. ऐसे किसी पल में जब आँखें नम होने को आये, और लेना चाहो किसी का नाम तुम, पर वो लब्ज़ हलक से निकल ना पाये, उस शांत समंदर जैसे कुछ पलों के एहसास को ख़ामोशी कहते है... -- कृष्णा पाण्डेय

अधूरी मुस्कान

लबों पे आ के ठहरी सी है एक अधूरी मुस्कान, जो किसी के चेहरे को देख कर पका करती थी, आज भी तमन्ना है दिल की वही खुल के हसने की, पर उसके बाहों का घेरा अब कहाँ जिसमे जन्नत बसती थी. हमें उम्मीद थी उनसे की वो करेगी अपना वादा पूरा, पर वो भी औरों की तरह शायद ज़माने से मजबूर थी. तनहाई में उसे याद करके सोचता हूँ उन हसीन लम्हों को, क्या वक़्त वापस लाएगी वो लम्हा जिसकी हम दोनों को तलाश थी. इसी ख्याल में था की, थम-के बहती हवाओं ने फुसफुसाया कानों में कुछ, फिर से ऐसा लगा कही किसी ने अपने ख्यालों में पुकारा हो मुझे अभी. हमने फिर उम्मीद भरी निगाहों से ताका आसमान की तरफ, काश कोई तारा टूट जाए हमारे दिल की तरह कहीं. -- कृष्ण पाण्डेय

मन और ह्रदय -- मेरी प्रथम हिंदी कविता

एक अधम मन और एक निष्पाप सा ह्रदय, इच्छाओं के दावानल में, एक नयी इच्छा का उदय | मन पुनः आरम्भ करता है, नविन स्वप्नों का सृजन, जो यथार्थ नहीं है अब तक, उसकी सार्थकता में हर्षित मन | कहीं काल-पीड़ित स्तंभों पर ठहरी, अतीत की अधूरी कल्पना, फिर घुमड़ते है शंका के बादल ह्रदय में, कर के सुक्ष्म विवेचना | कहीं कोई जीवन भर श्रापित, क्षण भर मन के उन्माद से, कहीं ह्रदय भी तृप्त है मिथ्या, दो क्षण के उल्लास में | मन एक झरने सा उच्छशृंखल, ह्रदय शांत सरोवर सा, विचार झरने की चंचल धारा, उद्वेग सरोवर में कंकड़ सा | ह्रदय को अभिलाषा है, सच्चे प्रेम की, कर्त्तव्य की, धर्म की, सम्मान की, शांत संतुष्ट जीवन की | मन इच्छुक है हर क्षण सुख का, शरीर बिना विकार के, फल बिना कर्म के और सम्पदा सारे संसार की || बहुत बुद्धि दौड़ा कर हमने जाना अब ये सार है, बिना सोच-विचार के कर्म करना अपराध है | शरीर एक नौका जैसी है, ह्रदय, मन दो पतवार है, जीवन एक समुद्र जैसी है, हमें सकुशल जाना उस पार है || -- कृष्ण पाण्डेय

हाल-ऐ-दिल

ये मन पतंग सा, बिन डोर कहीं उड़ चला, मुझे छोड़ दो मेरे ख्वाबों में, मुझे जगाओ ना. अभी भी है किसी का इन्तेजार मुझे, मुझे तनहा ही रहने दो, मेरे पास आओ ना. ऐसा नहीं की औरों को मेरी फिकर नहीं, चारो तरफ है लोग अपना रुमाल लिये, पर मैं इतना कमजोर भी नहीं, की, खुद का ख्याल ना रख सकूँ, बस मुझे रुलाओ ना. तमन्ना नहीं है मेरी मायूस रहने की, ऐसा भी नहीं की, सुनता नहीं किसी का कहना, लेकिन मेरी भी अपनी कुछ मर्ज़ी है, खुदी है, मैं अपनी ही धुन में हूँ, मुझे बहकाओ ना. हजारों पड़े है राहों में, आँखों में अश्क लिये, सैकड़ों कहानियां है अधूरी, प्यार की, मेरी भी है एक उसमे शामिल, कितने मिलते है हर-एक दुसरे से ये गिनाओ ना. कहते है, वक़्त है मरहम हर घाव का, पर कुछ घाव वक़्त ने ही दिये होते है, हमें मालूम है अपने दिल का इलाज़, मुफ्त में सलाह देकर हमें बहलाओ ना. हमें गम है उनसे ना मिल पाने का, और हमें नहीं है समझ ज़माने की, फिर से मिल सकूँ उससे इक बार, कोई ऐसी तरकीब सुझाओ ना. -- कृष्णा पाण्डेय

एक इच्छा

शायद जब से है जीवन इस धरा पे, वायु इस नभ में, पानी हर जलाशय में, अग्नि हर एक पेट में, तब से पल रही है हर चर-अचर के अंतः में, कभी तरंगित, कभी दबी-कुचली, कभी त्रिशंकु सी, एक इच्छा. अब इच्छा है तो पूर्ण ही होगी, ऐसा कोई साक्ष्य नहीं, अगर दृढ-संकल्प हो मन में, तो कुछ भी फिर असाध्य नहीं. कुछ देव-कृपा से फलित, कुछ दुर्भाग्य बन पलकों पे सजी. और कभी ऐसा हुआ घटित की लगे जीवन ले रही है कोई परीक्षा. मानव को है इच्छा आजीवन भोग-विलास की, पक्षी को इस असीमित नभ में और ऊँची उड़ान की, सब लगे है अपनी धुन में, बेहिचक, बेझिझक, बेपरवाह, अब धर्मं, मर्यादा, गरिमा, सहिष्णुता, ये सब बातें हैं इतिहास की. कभी सोचता हूँ क्या यही मानव की प्रकृति है, इच्छा और कर्म, जो हर-समय व्यस्त है सिर्फ स्वहित के व्यवसाय में, कभी देखता हूँ अपने आस-पास ये वृक्ष, नदियाँ, चन्द्रमा, और सूर्य, जो दृढ है अपने धर्मं पर, हर कण के कल्याण में. फिर सोचता हूँ, क्या मनुष्य हो सकता है इच्छाओं से रहित, क्यूँ की मैंने ये भी सुना है की ये सृष्टि भी है प्रभु की एक इच्छा. -- कृष्णा पाण्डेय

खोया हुआ प्यार

ऐसा नहीं की आज ये पहली बार हुआ है, की ज़ेहन में फिर उनका ज़िक्र हुआ है, फिर महसूस हुयी है आंसुओं की गर्माहट, आज फिर उनके इंतजार में दिन ढलने को है. फिर सहमा है दिल, कैसे कटेगी सारी रात तन्हाई में, वापस कानो को इंतजार दरवाजे पे किसी आहट का. डुबते रहे हम उनके ख्यालों में, अजीब सी सुकून में, दर्द भी था, ख़ुशी भी थी, उनके कभी हमारे होने का. फिर सुबह होगी, फिर दफ्तर जाने की मज़बूरी, फिर वही ख़ुशी का नकाब चेहरे पे, झूठलाते हुए लोगों की सवाल-भरी निगाहों को, जैसे सब कुछ सही ही हो इस ज़िन्दगी में. सच ही तो है, दो हाथ, दो पैर, अच्छी कद-काठी, सुन्दर चेहरा, माँ-बाप का साया, ढेर सारे यार, पर क्या करूँ इस दिल की फितरत का,  जिसे उसी की तलाश होती है - वो खोया हुआ प्यार. -- कृष्णा पाण्डेय

परेशानी

वो ज़ज्बा ही कही गुम है, आज़ादी का, सब खुश-फहमी में जिये जाते है... दो पल के सुकूनो आराम के लिये, लोगों के ईमान बदल जाते है... कहते है जंग के लिये जरुरत होती है हथियारों की, लोग चुभती बातों से ही बेहाल हुए जाते है... मौके-परस्तों की इस दुनिया में, किसका ऐतबार करे, अपने वादे रखने को, मर्द की ज़ुबान कम पड़ जाते है... चेहरों पे सिकन है वक़्त का, मज़बूरी की, कैसे जोड़ ले और दो-चार पाई, सब इस जुगत में है, उम्र गुजर गयी लोगों की इसी फिराक में, एक हम है, जो फ़ोकट में परेशान हुए जाते है... :) -- कृष्णा पाण्डेय