एक इच्छा

शायद जब से है जीवन इस धरा पे, वायु इस नभ में,
पानी हर जलाशय में, अग्नि हर एक पेट में,
तब से पल रही है हर चर-अचर के अंतः में,
कभी तरंगित, कभी दबी-कुचली, कभी त्रिशंकु सी, एक इच्छा.

अब इच्छा है तो पूर्ण ही होगी, ऐसा कोई साक्ष्य नहीं,
अगर दृढ-संकल्प हो मन में, तो कुछ भी फिर असाध्य नहीं.
कुछ देव-कृपा से फलित, कुछ दुर्भाग्य बन पलकों पे सजी.
और कभी ऐसा हुआ घटित की लगे जीवन ले रही है कोई परीक्षा.

मानव को है इच्छा आजीवन भोग-विलास की,
पक्षी को इस असीमित नभ में और ऊँची उड़ान की,
सब लगे है अपनी धुन में, बेहिचक, बेझिझक, बेपरवाह,
अब धर्मं, मर्यादा, गरिमा, सहिष्णुता, ये सब बातें हैं इतिहास की.

कभी सोचता हूँ क्या यही मानव की प्रकृति है, इच्छा और कर्म,
जो हर-समय व्यस्त है सिर्फ स्वहित के व्यवसाय में,
कभी देखता हूँ अपने आस-पास ये वृक्ष, नदियाँ, चन्द्रमा, और सूर्य,
जो दृढ है अपने धर्मं पर, हर कण के कल्याण में.

फिर सोचता हूँ, क्या मनुष्य हो सकता है इच्छाओं से रहित,
क्यूँ की मैंने ये भी सुना है की ये सृष्टि भी है प्रभु की एक इच्छा.
-- कृष्णा पाण्डेय

Comments

Popular posts from this blog

"gnome-screenshot" (No such file or directory)"

Install NS 2.35 from source packages on Fedora 16

An Incomplete Post...