इंसान और खुदाई - मेरी द्वितीय हिंदी कविता


इक तरफ शोर है, इक तरफ तनहाई है,
चाहूँ या ना चाहूँ, फिर तेरी धुंधली सी याद चली आयी है,
तेरा ना हो पाने के एहसास ने, जब दिल को बेकरार किया,
नजरों ने तब भीड़ में फिर, इक जानी सी शक्ल पायी है|

किससे कहूँ, किसको सुनाऊं, तेरे ख्यालों ने कितनी रातें जगाई है,
या बयाँ कर दूँ उन लब्जों को, जो तेरे अधखुले लबों की ख़ामोशी ने सुनाई है,
ढूंढ़ता रहता हूँ अपने बिस्तर के सिलवटों में कहीं, अनजान बने,
इक वही प्यारी मुस्कान, जो तुमसे छिपाकर तकिये के निचे दबाई है |

वादों पर एतबार था दोनों को ही,
फिर वक़्त ये किस मोड़ पे ले आयी है,
नहीं सब कुछ इंसान के बस में,
शायद इसी सच के इल्म का नाम खुदाई है ||
-- कृष्ण पाण्डेय

Comments

Popular posts from this blog

"gnome-screenshot" (No such file or directory)"

Install NS 2.35 from source packages on Fedora 16

An Incomplete Post...